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जीव-जन्तुओं, वनस्पति एवं जलवायु के पारस्परिक सम्बन्धों की समीक्षा कीजिए।यावनस्पति पर जलवायु कारकों के प्रभाव की विवेचना कीजिए।याजलवायु तथा वनस्पति के जीव-जन्तुओं से सह-सम्बन्ध की सोदाहरण विवेचना कीजिए। 

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पृथ्वी पर जलवायु एकमात्र ऐसा तत्त्व है जिसके व्यापक प्रभाव से पेड़-पौधों से लेकर छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े तथा हाथी जैसे विशालकाय पशु भी नहीं बच पाते। जलवायु का जीव पर समग्र प्रभाव पारिस्थितिकी तन्त्र कहलाता है। पारिस्थितिकी तन्त्र जैव जगत् के जैवीय सम्मिश्रण का ही दूसरा नाम है। ओडम के शब्दों में, “पारिस्थितिकी तन्त्र पौधों और पशुओं की परस्पर क्रिया करती हुई वह इकाई है जिसके द्वारा ऊर्जा का मिट्टियों से पौधों और पशुओं तक प्रवाह होता है तथा इस तन्त्र के जैव व अजैव तत्त्वों में पदार्थों का विनिमय होता है।”

हम जानते हैं कि प्रत्येक जीवोम अपने पारिस्थितिकी तन्त्र का परिणाम होता है। सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर आज तक जैव विकास की एक लम्बी कहानी है। सृष्टि के प्रारम्भ में जो जीवधारी उत्पन्न हुए प्राकृतिक पर्यावरण के साथ-साथ उनका स्वरूप भी बदलता गया। रीढ़विहीन प्राणी बाद में रीढ़ वाले प्राणी के रूप में विकसित हुए। डायनासोर से लेकर वर्तमान ऊँट और जिराफ तक सभी प्राणी जलवायु दशाओं के ही परिणाम हैं।
वनस्पति जगत् के जीवन-वृत्त में झाँकने से स्पष्ट हो जाता है कि अब तक पेड़-पौधे जलवायु दशाओं के फलस्वरूप नया आकार, प्रकारे और कलेवर धारण करते रहे हैं। काई से लेकर विशाल वृक्षों के निर्माण में लम्बा युग बीता है।
आइए निरीक्षण करें कि पेड़-पौधे और जीव-जन्तु जलवायु के साथ किस प्रकार के सह-सम्बन्ध बनाये हुए हैं –

(1) वनस्पति पर जलवायु को प्रभाव अथवा पेड़ – पौधों और जलवायु का सह-सम्बन्ध – प्राकृतिक वनस्पति अपने विशिष्ट पर्यावरण की देन होती है। यही कारण है कि पेड़-पौधों और जलवायु के मध्य सम्बन्धों की प्रगाढ़ता पायी जाती है। विभिन्न जलवायु प्रदेशों में विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधों का पाया जाना यह स्पष्ट करता हैं कि जलवायु और वनस्पति का अटूट सम्बन्ध है। टुण्ड्रा प्रदेश में कठोर शीत, तुषार और हिमावरण के कारण वृक्ष कोणधारी होते हैं। ढालू वृक्षों पर हिमपात का कोई प्रभाव नहीं होता। इन प्रदेशों में स्थायी तुषार रेखा पायी जाने तथा भूमि में वाष्पीकरण कम होने के कारण पेड़-पौधों का विकास कम होता है। टुण्ड्रा और टैगा प्रदेशों में वृक्ष बहुत धीरे-धीरे बढ़ते हैं। इनकी लकड़ी मुलायम होती है।

उष्ण मरुस्थलीय भागों में वर्षा की कमी तथा उष्णता के कारण वृक्ष छोटे-छोटे तथा काँटेदार होते हैं। वृक्षों की छाल मोटी तथा पत्तियाँ छोटी-छोटी होती हैं। अनुपजाऊ भूमि तथा कठोर जलवायु दशाएँ वृक्षों के विकास में बाधक बन जाती हैं।

मानसूनी प्रदेशों में वृक्ष ग्रीष्म ऋतु की शुष्कता से बचने के लिए अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं। वर्षा ऋतु में यहाँ वृक्षों का विकास सर्वाधिक होता है।
भूमध्यसागरीय प्रदेशों में जाड़ों में वर्षा होती है; अतः वृक्ष लम्बी गाँठदार जड़ों में जल एकत्र करके ग्रीष्म की शुष्कता से अपना बचाव कर लेते हैं। जाड़ों की गुलाबी धूप तथा हल्की ठण्ड ने यहाँ रसदार फलों के उत्पादन में बहुत सहयोग दिया है।

घास बहुल क्षेत्रों में वर्षा की कमी के कारण वृक्ष नहीं उगते। यहाँ लम्बी-लम्बी हरी घास उगती है। घास ही यहाँ की प्राकृतिक वनस्पति होती है।

भूमध्यरेखीय प्रदेशों में अधिक गर्मी तथा अधिक वर्षा के कारण घने तथा ऊँचे-ऊँचे वृक्ष उगते हैं। इन वृक्षों को काटना सुविधाजनक नहीं है। वृक्षों के नीचे छोटे वृक्ष तथा लताएँ उगती हैं। ये वृक्ष सदाबहार होते हैं।

पर्वतीय क्षेत्रों में ऊँचाई के साथ जलवायु में बदलाव आने के साथ ही वनस्पति के प्रकार एवं स्वरूप में भी अन्तर उत्पन्न होता जाता है। उच्च अक्षांशों एवं पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ बर्फ पड़ती है, वहाँ नुकीली पत्ती वाले कोणधारी वन पाये जाते हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि किसी स्थान की जलवायु ही वहाँ की वनस्पति की नियन्त्रक होती है। इसके विपरीत जलवायु पर वनस्पति जगत् का प्रभाव भी पड़ता है। वनस्पति जलवायु को स्वच्छ करती है। पेड़-पौधे भाप से भरी पवनों को आकर्षित कर वर्षा कराते हैं। वृक्ष वायुमण्डल में नमी छोड़कर जलवायु को नम रखते हैं। वृक्ष पर्यावरण के प्रदूषण को रोककर जलवायु के अस्तित्व को बनाये रखते हैं। इस प्रकार पेड़-पौधे तथा जलवायु का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। जहाँ पेड़-पौधे जलवायु को प्रभावित करते हैं, वहीं जलवायु पेड़-पौधों पर अपनी अमिट छाप छोड़ती है।

(2) जीव-जन्तुओं और जलवायु का सह-सम्बन्ध – किसी भी स्थान के जैविक तन्त्र की रचना जलवायु के द्वारा ही होती है। जीव-जगत् जलवायु पर उतना ही निर्भर करता है जितना वनस्पति जगत्। जीव-जन्तुओं के आकार, प्रकार, रंग-रूप, भोजन तथा आदतों के निर्माण में जलवायु सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

टुण्ड्रा और टैगी प्रदेश में शीत-प्रधान जलवायु के कारण ही समूरधारी जानवर उत्पन्न होते हैं। प्रकृति द्वारा दिये गये उनके लम्बे तथा मुलायम बाल ही उन्हें हिमपात तथा कठोर शीत से बचाते हैं। ये पशु इस क्षेत्र के पौधों के पत्ते खाकर जीवित रहते हैं। रेण्डियर, श्वेत ‘भालू तथा मिन्क इस क्षेत्र की जलवायु की ही देन हैं।

उष्ण मरुस्थलीय क्षेत्रों में ऊँट तथा भेड़-बकरियाँ ही पनप पाती हैं। ये पशु शुष्क जलवायु में रह सकते हैं। ऊँट रेगिस्तान का जहाज कहलाता है। ये सभी पशु मरुस्थलीय क्षेत्रों में उगी वनस्पतियों के पत्ते खाकर जीवित रहते हैं। ऊँची-ऊँची झाड़ियों के पत्ते खाने में भी ऊँट सक्षम है। मरुस्थलीय प्रदेशों में दूरदूर तक पेड़-पौधों तथा जल के दर्शन तक नहीं होते। यही कारण है कि यहाँ का मुख्य पशु ऊँट बगैर कुछ खाये-पिये. हफ्तों तक जीवित रह सकता है। इन क्षेत्रों के जीवों को पानी की कम आवश्यकता होती है।

मानसूनी प्रदेश के वनों में शाकाहारी तथा मांसाहारी पशुओं की प्रधानता है। शाकाहारी पशु वृक्षों के पत्ते खाकर तथा मांसाहारी पशु शाकाहारी पशुओं को खाकर जीवित रहते हैं।
घास बहुल क्षेत्रों में घास खाने वाले पशु ही अधिक विकसित हो पाते हैं। जेबरां तथा जिराफ सवाना तुल्य जलवायु के मुख्य पशु हैं। जिराफ ऊँची-से-ऊँचीं डाल की पत्तियाँ खाने का प्रयास करता है; अतः उसकी गर्दन लम्बी हो जाती है।

विषुवतेरेखीय प्रदेश की उष्ण एवं नम जलवायु में मांसाहारी पशुओं से लेकर वृक्षों की शाखाओं पर रहने वाले बन्दर, गिलहरी तथा साँप एवं जल में पाये जाने वाले मगरमच्छ तथा दरियाई घोड़े पाये जाते हैं। उष्ण जलवायु ने यहाँ के मक्खी और मच्छरों को विषैला बना दिया है।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि किसी भी स्थान पर पाये जाने वाले जीव-जन्तु उस स्थान की जलवायु का परिणाम हैं। जलवायु का प्रभाव जीव-जन्तुओं के आकार, रंग-रूप, भोजन, स्वभाव आदि सभी गुणों पर देखने को मिलती है।



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