1.

दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर लिखिए।निन्दा का उद्गम ही हीनता और कमजोरी से होता है। मनुष्य अपनी हीनता से दबता है। वह दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है। उसके अहं की इससे तुष्टि होती है। बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर छोटी लकीर बड़ी बनती है। ज्यों-ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है, त्यों-त्यों निन्दा की प्रवृत्ति बढ़ती जाती है। कठिन कर्म ही ईष्र्या-द्वेष और इनसे उत्पन्न निन्दा को मारता है। इन्द्र बड़ा ईर्ष्यालु माना जाता है क्योंकि वह निठल्ला है। स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न, बे बनायो महल और बिन बोये फल मिलते हैं। अकर्मण्यता में उन्हें अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है, इसलिए कर्मी मनुष्यों से उन्हें ईष्र्या होती है।(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।(iii) निन्दा का उद्गम कहाँ से होता है?(iv) निन्दक व्यक्ति दूसरों की निन्दा करके कैसा अनुभव करता है?(v) इन्द्र को ईष्र्यालु क्यों माना जाता है?

Answer»

(i) प्रस्तुत गद्यावतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित तथा हिन्दी के प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई द्वारा लिखित ‘निन्दा रस’ शीर्षक व्यंग्यात्मक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा
पाठ का नाम-
 निन्दा रस।।
लेखक का नाम-हरिशंकर परसाई।

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या-लेखक कहता है कि इन्द्र को बड़ा ईष्र्यालु माना जाता है; क्योंकि वह निठल्ला रहता है, उसे कुछ नहीं करना पड़ता। उसे खाने के लिए अन्न नहीं उगाना पड़ता, फल पाने के लिए पेड़ नहीं बोने पड़ते तथा रहने के लिए बना-बनाया महल मिल जाता है। स्वर्ग में ये सभी चीजें स्वत: प्राप्त हो जाती हैं, इन्हें प्राप्त करने के लिए कुछ भी श्रम नहीं करना पड़ता। खाली रहने के कारण उसे अपनी अप्रतिष्ठा का डर बना रहता है। इसलिए वह किसी तपस्वी को तपस्या करते देखकर, किसी कर्मठ व्यक्ति को श्रेष्ठ कर्म करते देखकर ही भयभीत हो जाता है कि कहीं यह अपनी कर्मठता से मेरे पद को न छीन ले; अत: वह उससे ईर्ष्या करने लगता है।

(iii) निन्दा का उद्गम हीनता और कमजोरी से होता है।

(iv) निन्दक व्यक्ति दूसरों की निन्दा करके ऐसा अनुभव करता है कि वे सब निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है।

(v) निठल्ला होने के कारण इन्द्र को ईर्ष्यालु माना जाता है।



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