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“बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर छोटी लकीर बड़ी लकीर बनती है।”

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प्रसंग : प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्य पुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के ‘निन्दा रस’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके लेखक हरिशंकर परसाई हैं।
संदर्भ : प्रस्तुत वाक्य में लेखक बता रहे हैं कि किस तरह निन्दक अपनी हीनता को छिपाने के लिए परनिंदा को अग्रसर होते हैं।
स्पष्टीकरण : परसाई जी कहते हैं कि जो व्यक्ति किसी बात में अक्षम होता है तो इससे उसमें एक हीनता-बोध की भावना बैठ जाती है। ऐसे में अपनी कमजोरी को छिपाने के लिए वह दूसरों की निन्दा करता है। इससे उसके मन को संतुष्टि होती है कि बाकी सब बेवकूफ है, निकृष्ट हैं और वह उनसे अच्छा है। तब लेखक कहते हैं, ‘बड़ी लकीर को कुछ मिटाकर छोटी लकीर बड़ी बनती है। ऐसा कार्य कर्महीन व्यक्ति ही करता है।



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