1.

W e — eT e 2. G\m-T—_—

Answer»

प्रथम विश्व युद्ध के राजनीतिक परिणाम

राजतंत्रीय सरकारों का पतन– यूरोपीय महाद्वीप के तथा अन्य देशों में प्रचलित एकतंत्र व राजतंत्र समाप्त हो गए, जिसमें जर्मनी, ऑस्ट्रिया, रूस के राजवंश प्रमुख थे। 1923 ई. में टर्की के सुल्तान के गद्दी छोड़ने के साथ ही असमानी राजवंश का भी पतन हो गया। पोलैंड, बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया व फिनलैंड में भी निरंकुश शासन समाप्त हो गया। यद्यपि इंग्लैंड, स्पेन, यूनान में रोमानिया आदि देशों में राजतंत्रीय सरकारों पर इस युद्ध का कोई प्रभाव तो नहीं पड़ा, किंतु युद्ध के पश्चात वहां भी प्रजातंत्रिकरण की करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी।

जनतंत्रीय भावना का विकास– प्रथम विश्वयुद्ध में केंद्रीय शक्तियों के विरुद्ध मित्र राष्ट्रों ने प्रजातंत्र की भावना को प्रोत्साहित करने की घोषणा की थी। इंग्लैंड ने प्रजातंत्र की रक्षा हेतु तथा अमेरिका ने निरंकुश व प्रतिक्रियावादी सरकारों से विश्व को सुरक्षित रखने तथा प्रजातंत्र की भावना की रक्षा हेतु युद्ध में भाग लिया था। युद्ध समाप्ति के पश्चात विभिन्न देशों की राजतंत्रीय सरकारों के पतन का स्थान प्रजातांत्रिक सरकार ने ले लिया। जर्मनी में जोर्वन-वंश के अंतिम सम्राट विलियम केसर द्वितीय के राजसिंहासन छोड़कर हॉलैंड भागने पर वहां पर गणतंत्र की स्थापना की गई। साथ ही रूस, ऑस्ट्रिया, पोलैंड, चेकोस्लोवाकिया, लिथुयनिया, फिनलैंड, टर्की आदि देशो में भी गणतंत्रीय सरकार का गठन हुआ।

राष्ट्रीयता की भावना का विकास– प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात संपूर्ण यूरोप में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने के कारण निश्चित किया गया कि किसी देश की सीमाओं का निर्धारण करते समय वह देश की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, रीति-रिवाज, परम्परा आदि का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अमेरिकन राष्ट्रपति विल्सन ने भी पेरिस शांति सम्मेलन में 14 सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए आत्मनिर्णय के सिद्धांत विशेष बल दिया। इसी सिद्धांत के आधार पर चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, युगोस्लाविया, पोलैंड, फिनलैंड, लिथुआनिया, एस्टोनिया, व केटेवियम नामक राज्यों का गठन किया गया। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसे राज्य भी थे जहां राष्ट्रीयता व आत्मनिर्णय के सिद्धांत को लागू न कर अल्पसंख्यकों की भावना की अवहेलना कर उन्हें बहुसंख्यको की दया पर छोड़ दिया गया, किंतु राष्ट्रीयता की भावना का संचार होने के कारण इन राज्यों ने विद्रोह करना प्रारंभ कर दिया।

अंतर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास– प्रथम विश्वयुद्ध के विनाशकारी परिणामो से यह परिलक्षित होने लगा कि विश्व में शांति और सद्भावना स्थापित करने हेतु पारस्परिक सहयोग व मंत्री आवश्यक है। यूरोपीय देशों में धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा, जिसके आधार पर 1919 ई. में पेरिस शांति सम्मेलन का आयोजन किया गया जिसमें भविष्य में विभिन्न देशों की समस्याओं को परस्पर बातचीत के माध्यम से हल करने के लिए एक स्थाई अंतरराष्ट्रीय संस्था की स्थापना का निर्णय लिया गया, जिसके परिणामस्वरुप राष्ट्रसंघ की स्थापना की गई।

सामाजिक परिणाम

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान महिलाओं के कार्य-क्षेत्र का विस्तार हुआ, उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया तथा वह अपने सामाजिक महत्व का अनुभव करने लगी। युद्ध काल के दौरान सैनिकों की मांग व युद्ध सामग्री निर्मित करने वाले उद्योगो में कार्य करने हेतु मजदूरों की मांग में वृद्धि होने के कारण पुरुष अपने कार्य छोड़कर सैनिक सेवा व युद्ध सामग्री के उद्योगो में कार्य करने लगे, फ़लतः पुरुषों द्वारा खाली किये गए स्थानों पर स्त्रियां कार्य करने लगी। स्त्रियों ने आर्थिक विकास में सहयोग देने के साथ-साथ राजनीतिक गतिविधियों में भी भाग लेना शुरू कर दिया। स्त्रियों में आत्मविश्वास और आत्मनिर्णय की भावना जागृत होने से वे पुरुषों के समान अधिकार व सुविधाओं की मांग सरकार से करने लगी।

1914 ई. में सभी देश जातीय नफ़रत व रंगभेद कि भावना से ग्रसित थे। इसी आधार पर ग्रेट ब्रिटेन के लोग भारत व अफ्रीकावासियों से घृणा करते थे तथा जर्मन व फ्रेंच जनता स्वयं को अन्य देशों की जनता से श्रेष्ठ समझती थी। विश्वव्यापी स्तर पर लड़े जाने वाले प्रथम विश्वयुद्ध में सभी जातियों के व्यक्तियों ने बड़ी संख्या में भाग लिया था। अतः जातीय कटुता की भावना को समाप्त करने की दिशा में भी प्रथम विश्वयुद्ध का महत्वपूर्ण योगदान रहा।

युद्ध काल में सैनिकों की मांग बढ़ जाने तथा अनिवार्य सैनिक सेवा के कारण बहुत से विद्यार्थियों ने शिक्षा छोड़ सेना में भर्ती होने का निर्णय किया। फलतः विद्यार्थियों की संख्या कम होने से अनेको शिक्षण-संस्थाएं बंद हो गई। इस प्रकार शिक्षा जगत में सुधार व विकास की आवश्यकता का अनुभव युद्धोत्तर काल में किया गया।

विश्वयुद्ध में अस्त्रों शस्त्रों व अन्य युद्ध-सामग्री के निर्माण के योगदान से श्रमिकों ने देश की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया तथा युद्ध के पश्चात उन्होंने सरकार से आवश्यक सुविधाओं की मांग की। विश्वयुद्ध के पश्चात श्रमिको ने ट्रेड यूनियनों का सफलतापूर्वक संचालन कर देश के प्रशासन तथा व्यापार व उद्योगों में अपने निश्चित स्थान की मांग की।

विश्व युद्ध के बाद ही समाजवाद की भावना का उदय और विकास हुआ, जिसमें उद्योगों का राष्ट्रीयकरण व उन पर राज्य का स्वामित्व सम्मिलित था। फलतः ओद्योगिक क्षेत्र में राज्य का हस्तक्षप पहले की अपेक्षा बड़ जाने से श्रमिक वर्ग के महत्व में वृद्धि हुई। सरकारों ने श्रमिकों को आवास, शिक्षा, चिकित्सा तथा अन्य सुविधाएं प्रदान कर उन्हें ट्रेड यूनियन गठित करने पर हड़ताल करने का अधिकार भी प्रदान किया।

युद्ध का सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिणाम विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति व विकास के रूप में परिलक्षित होता है। युद्ध में विध्वंसकारी आविष्कार कर उनका प्रयोग किया गया था। फलतः युद्धोपरांत नवीन आविष्कारों के लिए सभी देशों में प्रतियोगिता की भावना उत्पन्न हो गई, जिससे विज्ञान के क्षेत्र में अभूतपूर्व उन्नति हुई थी।

आर्थिक परिणाम

सभी देशों ने युद्ध में अपनी संपूर्ण शक्ति, समय, धन लगा दिया। फलतः उद्योग व्यापार, कृषि, वाणिज्य का विकास अवरुद्ध हो गया। उत्पादन क्षमता में कमी आ जाने से जनता की आवश्यकता की वस्तुओं का आयात करना पड़ा।

उत्पादन कम हो जाने से वस्तुओं के मूल्यों में काफी वृद्धि हो गई। आर्थिक स्थिति जर्जर होने के कारण जनता की क्रय शक्ति खत्म हो गई थी, जिसके कारण वह भूखों मरने लगी। फलतः लोगों को अनेक आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

आर्थिक आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए सरकार ने जनता पर अनेक कर आरोपित कर दिए थे, जिससे जनता की स्थिति अत्यन्त कष्टमय हो गयी। फलतः उनमे असंतोष पढ़ने लगा

राष्ट्रीय ऋण का भार अत्यधिक हो जाने के कारण विभिन्न देशों की सरकारों ने विशाल पैमाने पर कागजी मुद्रा का प्रचलन शुरू कर दिया, जिससे मुद्रा की क्रय शक्ति कम हो गई और वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो गयी।

प्रथम विश्वयुद्ध में प्रत्यक्षतः 10 खरब रुपयों की धनराशि खर्च हुई। मार्च 1915 ई. में केवल इंग्लैंड का युद्ध का व्यय पन्द्रह लाख पौण्ड प्रतिदिन था जो 1917-1918 ई. में 65 लाख पौण्ड प्रतिदिन हो गया था। युद्ध की समाप्ति पर सभी देशों पर राष्ट्रीय ऋण का अत्यधिक भार पड़ा। उत्तरी फ्रांस, बेल्जियम, रूस, पोलैंड, उत्तरी इटली, ऑस्ट्रिया, मलेशिया व सर्बिया को आर्थिक दृष्टि से शत्रु देशों द्वारा नष्ट किए जाने के कारण उन पर बड़े देशों का राजनीतिक प्रभुत्व था। साथ ही युद्धकाल की आर्थिक नीति ने जनता के कष्ट व समस्याओं की वृद्धि करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। स्पष्ट है कि युद्ध में विजेता और विजित दोनों पक्षों की अपार जन-धन की क्षति हुई। इसने विभिन्न देशों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व वैज्ञानिक जीवन पर क्रांतिकारी प्रभाव डाला था। इसमें केवल यूरोप ही नहीं, बल्कि संपूर्ण विश्व के इतिहास को बदल दिया था। विजेता पक्ष को पेरिस की संधि मैं निश्चित की गई क्षतिपूर्ति से संतोष नहीं हुआ तथा विजित देशों को भी संधि की शर्तों को स्वीकार करने हेतु बाध्य होना पड़ा। फलतः शांति की स्थाई स्थापना नहीं हो सकी और मात्र 20 वर्ष बाद एक बार पुनः विश्व को महायुद्ध के के विध्वंसकारी दृश्य देखने को विवश होना पड़ा।



Discussion

No Comment Found