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जरूरत भर जीरा वहाँ से ले लिया कि फिर सारा चौक उनके लिए आसानी से नहीं के बराबर हो जाता है-भगत जी की इस सन्तुष्ट निस्पृहता की तुलना कबीर की इस सूक्ति से कीजिए –चाह गई चिन्ता मिटी मनुआँ बेपरवाह।जाको कछु नहिं चाहिए सोइ शहंशाह॥ |
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Answer» चाह अर्थात् तृष्णा से मुक्त होकर मनुष्य निश्चिन्त हो जाता है। जिसको संसार की किसी वस्तु की कामना नहीं होती वही सच्चे अर्थ में शहंशाह होता है। भगत जी को अपनी सीमित आवश्यकता जीरा और नमक से अधिक किसी वस्तु को बाजार से खरीदने की जरूरत नहीं होती। छः आने की कमाई होते ही वह चूरन बेचना बन्द कर देते थे तथा शेष चूरन बच्चों में मुफ्त दे देते हैं। उनको बाजार में बिकने वाली अन्य चीजों में कोई आकर्षण नहीं प्रतीत होता तथा जरूरत से अधिक धनोपार्जन में भी उनकी रुचि नहीं होती। इस प्रकार बेफिक्र भगत जी कबीर के सच्चे अनुयायी प्रतीत होते हैं। |
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