1.

Ex of sakermak and akermak priya in hindi

Answer»

राहुल सांकृत्यायन सच्चे अर्थों में जनता के लेखक थे। वह आज जैसे कथित प्रगतिशील लेखकों सरीखे नहीं थे जो जनता के जीवन और संघर्षों से अलग–थलग अपने–अपने नेह–नीड़ों में बैठे कागज पर रोशनाई फिराया करते हैं। जनता के संघर्षों का मोर्चा हो या सामंतों–जमींदारों के शोषण–उत्पीड़न के खिलाफ किसानों की लड़ाई का मोर्चा, वह हमेशा अगली कतारों में रहे। अनेक बार जेल गये। यातनाएं झेलीं। जमींदारों के गुर्गों ने उनके ऊपर कातिलाना हमला भी किया, लेकिन आजादी, बराबरी और इंसानी स्वाभिमान के लिए न तो वह कभी संघर्ष से पीछे हटे और न ही उनकी कलम रुकी।दुनिया की छब्बीस भाषाओं के जानकार राहुल सांकृत्यायन की अद्भुत मेधा का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि ज्ञान–विज्ञान की अनेक शाखाओं, साहित्य की अनेक विधाओं में उनको महारत हासिल थी। इतिहास, दर्शन, पुरातत्व, नृतत्वशास्त्र, साहित्य, भाषा–विज्ञान आदि विषयों पर उन्होंने अधिकारपूर्वक लेखनी चलायी। दिमागी गुलामी, तुम्हारी क्षय, भागो नहीं दुनिया को बदलो, दर्शन–दिग्दर्शन, मानव समाज, वैज्ञानिक भौतिकवाद, जय यौधेय, सिंह सेनापति, दिमागी गुलामी, साम्यवाद ही क्यों, बाईसवीं सदी आदि रचनाएं उनकी महान प्रतिभा का परिचय अपने आप करा देती हैं।राहुल जी देश की शोषित–उत्पीड़ित जनता को हर प्रकार की गुलामी से आजाद कराने के लिए कलम को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते थे। उनका मानना था कि “साहित्यकार जनता का जबर्दस्त साथी, साथ ही वह उसका अगुआ भी है। वह सिपाही भी है और सिपहसालार भी।”राहुल सांकृत्यायन के लिए गति जीवन का दूसरा नाम था और गतिरोध मृत्यु एवं जड़ता का। इसीलिए बनी–बनायी लीकों पर चलना उन्हें कभी गवारा नहीं हुआ। वह नयी राहों के खोजी थे। लेकिन घुमक्कड़ी उनके लिए सिर्फ भूगोल की पहचान करना नहीं थी। वह सुदूर देशों की जनता के जीवन व उसकी संस्कृति से, उसकी जिजीविषा से जान–पहचान करने के लिए यात्राएं करते थे।समाज को पीछे की ओर धकेलने वाले हर प्रकार के विचार, रूढ़ियों, मूल्यों–मान्यताओं–परम्पराओं के खिलाफ उनका मन गहरी नफरत से भरा हुआ था। उनका समूचा जीवन व लेखन इनके खिलाफ विद्रोह का जीता–जागता प्रमाण है। इसीलिए उन्हें महाविद्रोही भी कहा जाता है। जनता के ऐसे ही सच्चे सपूत महाविद्रोही राहुल सांकृत्यायन का एक प्रसिद्ध निबन्ध ‘दिमागी गुलामी’ हम ‘बिगुल’ के पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहे हैं। राहुल की यह निराली रचना आज भी हमारे समाज में प्रचलित रूढ़ियों के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष की ललकार है। -सम्पादकजिस जाति की सभ्यता जितनी पुरानी होती है, उसकी मानसिक दासता के बंधन भी उतने ही अधिक होते हैं। भारत की सभ्यता पुरानी है, इसमें तो शक ही नहीं और इसलिए इसके आगे बढ़ने के रास्ते में रुकावटें भी अधिक हैं। मानसिक दासता प्रगति में सबसे अधिक बाधक होती है।हमारे कष्ट, हमारी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक समस्याएं इतनी अधिक और इतनी जटिल हैं कि हम तब तक उनका कोई हल सोच नहीं सकते जब तक कि हम साफ–साफ और स्वतंत्रतापूर्वक इन पर सोचने का प्रयत्न न करें। वर्तमान शताब्दी के आरम्भ में भारत में राष्ट्रीयता की बाढ़–सी आ गई, कम से कम तरुण शिक्षितों में। यह राष्ट्रीयता बहुत अंशों में श्लाघ्य रहने पर भी कितने ही अंशों में अंधी राष्ट्रीयता थी।झूठ–सच जिस तरीके से भी हो, अपने देश के इतिहास को सबसे अधिक निर्दोष और गौरवशाली सिद्ध करने अर्थात अपने ऋषि–मुनियों, लेखकों और विचारकों, राजाओं और राज–संस्थाओं में बीसवीं शताब्दी की बड़ी से बड़ी राजनीतिक महत्व की चीजों को देखना हमारी इस राष्ट्रीयता का एक अंग था। अपने भारत को प्राचीन भारत और उसके निवासियों को हमेशा से दुनिया के सभी राष्ट्रों से ऊपर साबित करने की दुर्भावना से प्रेरित हो हम जो कुछ भी अनाप–शनाप ऐतिहासिक खोज के नाम पर लिखें, उसको यदि पाश्चात्य विद्वान न मानें तो झट से फतवा पास कर देना कि सभी पश्चिमी ऐतिहासिक अंग्रेजी और फ्रांसीसी, जर्मन और इटालियन, अमेरिकन और रूसी, डच और चेकोस्लाव सभी बेईमान हैं, सभी षड्यंत्र करके हमारे देश के इतिहास के बारे में झूठी–झूठी बातें लिखते हैं। वे हमारे पूजनीय वेद को साढ़े तीन और चार हजार वर्षों से अधिक पुराना नहीं होने देते (हालांकि वे ठीक एक अरब बानवे वर्ष पहले बने थे)। इन भलेमानसों के ख्याल में आता है कि अगर किसी तरह से हम अपनी सभ्यता, अपनी पुस्तकों और अपने ऋषि–मुनियों को दुनिया में सबसे पुराना साबित कर दें, तो हमारा काम बन गया।शायद दुनिया हमारे अधिकारों की प्राचीनता को देखकर बिना झगड़ा–झंझट के ही हमें आजाद हो जाने दे, अन्यथा हमारे तरुण अपनी नसों में उस प्राचीन सभ्यता के निर्माताओं का रक्त होने के अभिमान में मतवाले हो जायें और फिर अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी भी उनके बायें हाथ का खेल बन जाये, और तब हमारे देश को आजाद हो जाने में कितने दिन लगेंगे? आज हमारे हाथ में चाहे आग्नेय अस्त्र न हों, नई-नई तोपें और मशीनगन न हों, समुन्दर के नीचे और हवा के ऊपर से प्रलय का तूफान मचाने वाली पनडुब्बियां और जहाज न हों, लेकिन यदि हम राजा भोज के काठ के उड़ने वाले घोड़े और शुक्रनीति में बारूद साबित कर दें तो हमारी पांचों अंगुलियां घी में। इस बेवकूफी का भी कहीं ठिकाना है कि बाप–दादों के झूठ–मूठ के ऐश्वर्य से हम फूले न समायें और हमारा आधा जोश उसी की प्रशंसा में खर्च हो जाये।mark as BRAINLIST



Discussion

No Comment Found

Related InterviewSolutions