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awareness.* को परिवेशीय सजगता संबंधी गतिविधियों में संलग्न रखने के महत्व स्पष्ट कीजिए

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बच्चे अपने साथ बहुत कुछ लेकर विद्यालय आते हैं – अपनी भाषा, अपने अनुभव और दुनिया को देखने का अपना नजरिया आदि। बच्चे घर – परिवार एवं परिवेश से जिन अनुभवों को लेकर विद्यालय आते हैं, वे बहुत समृद्ध होते हैं। उनकी इस भाषायी पूँजी का इस्तेमाल भाषा सीखने – सिखाने के लिए किया जाना चाहिए। पहली बार विद्यालय में आने वाला बच्चा आने शब्दों के अर्थ और उनके प्रभाव से परिचित होता है। लिपिबद्ध (चिन्ह और उनसे जुड़ी ध्वनियाँ बच्चों के लिए अमूर्त होती हैं, इसलिए पढ़ने का प्रारंभ अर्थपूर्ण सामग्री से ही होना चाहिए और किसी उद्देश्य के लिए होना चाहिए। यह उद्देश्य कहानी सुनकर – पढ़कर आनंद लेना भी हो सकता है। धीरे – धीरे बच्चों में भाषा की लिपि से परिचित होने के बाद अपने परिवेश में उपलब्ध लिखित भाषा को पढ़ने – समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होने लगती है। भाषा सीखने – सिखाने की इस प्रक्रिया के मूल में बच्चों के बारे में यह अवधारणा है कि बच्चे दुनिया के बारे में अपनी समझ और ज्ञान का निर्माण स्वयं करते हैं। यह निर्माण किसी के सिखाए जाने या जोर जबरदस्ती से नहीं बल्कि बच्चों के स्वयं के अनुभवों और आवश्यकताओं से होता है। इसलिए बच्चों को ऐसा वातावरण मिलना जरूरी है जहाँ वे बिना रोक - टोक के अपनी उत्सुकता के अनुसार अपने परिवेश की खोज – बीन कर सकें। यह अवधारणा बच्चों की भाषायी क्षमताओं पर भी लागू होती है। विद्यालय में आने पर बच्चे प्राय: स्वयं को बेझिझक अभिव्यक्त करने में असर्मथ पाते हैं, क्योंकि जिस भाषा में वे सहज रूप से अपनी राय, अनुभव, भावनाएं आदि व्यक्त करना चाहते हैं, वह विद्यालय में प्राय: स्वीकृत नहीं होती। भाषा – शिक्षण को बहुभाषी संदर्भ में रखकर देखने की आवश्यकता है। कक्षा में बच्चे अलग – अलग भाषायी – सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आते हैं। कक्षा में इनकी भाषाओँ का स्वागत किया जाना चाहिए, क्योंकि बच्चों की भाषा को नकारने का अर्थ है – उनकी अस्मिता को नकारना। प्राथमिक स्तर पर भाषा सीखने – सिखाने को संबंध में यह एक जरूरी बात है कि बच्चे विभिन्न प्रकार के परिचित और अपरिचित सन्दर्भों के अनुसार भाषा का सही प्रयोग कर सकें। वे सहज, कल्पनाशील, प्रभावशाली और व्यवस्थित ढंग से किस्म का सही प्रयोग कर सकें। वे भाषा को प्रभावी बनाने के लिए सही शब्दों का प्रयोग कर सकें। यह जरूरी हैं कि पढ़ना, सुनना, लिखना, बोलना- इन चारों प्रक्रियाओं में बच्चे अपने पूर्वज्ञान की सहायता से अर्थ की रचना कर पायें और कही गई बात के निहितार्थ को भी पकड़ पायें। भाषा – संप्राप्ति संबंधी आगे की चर्चा में पढ़ने को लेकर जिस बात पर बल दिया गया है उसके अनुसार ‘पढ़ना’ मात्र किताबी कौशल न होकर एक तहजीब और तरकीब है। पढ़ना, पढ़कर समझने और उस प्रतिक्रिया करने की एक प्रक्रिया है। दूसरे शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि मुद्रित अथवा लिखित सामग्री से कुछ संदर्भों व अनुमान के आधार पर अर्थ पकड़ने की कोशिश पढ़ना है। ऐसी स्थिति में हम अनेक बार किसी पाठ्य – वस्तु को पढ़ने के दौरान, किसी बिन्दु पर जरूरत महसूस होने पर उसी को आगे के संदर्भ में समझने के लिए लौटकर फिर पढ़ते हैं। पढ़ने का यह दोहराव अर्थ की खोज का प्रमाण बन जाता है। पढ़ने के दौरान अर्थ निर्माण के लिए इस बात की भी समझ होनी चाहिए कि अर्थ केवल शब्दों और प्रयुक्त वाक्यों में ही निहित नहीं है, बल्कि वह पाठ की समग्रता में भी मौजूद होता है और कई बार उसमें जो साफ तौर पर नहीं कहा गया होता है, उसे भी समझ पाने की जरूरत होती है। यह समझना भी जरूरी है कि पठन सामग्री की अपनी एक अनूठी संरचना होती है और उस संरचना की समझ रखना परिचित अर्थ निर्माण में सहायक होता है।



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